बच्चे के माँ से अलगाव को लेकर उसकी चिंता ने सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले की पुनः समीक्षा करने पर मजबूर कर दिया। 2024 के उस फैसले में, उच्चतम न्यायालय ने केरल हाईकोर्ट के उस निर्णय को पुष्टि की थी, जिसमें बच्चे की स्थायी हिरासत उसकी माँ से उसके जैविक पिता को सौंपने का निर्देश दिया गया था। उस समय, बच्चे की माँ ने तलाक के बाद दूसरी शादी कर ली थी और अब वह विदेश जाने का इरादा रखती थीं।
बच्चे के पिता ने हाईकोर्ट का रुख किया था, ताकि उसकी हिरासत हासिल की जा सके। हाईकोर्ट ने माना था कि बच्चे के विदेश जाने से उसकी स्थिर जिंदगी भंग हो जाएगी, इसलिए वह भारत में ही अपने पिता के साथ रहना चाहता है। उच्चतम न्यायालय ने उस फैसले को अपील पर कायम रखा।
माँ ने अपने वकील वरिष्ठ अधिवक्ता लिज़ मैथ्यू और अधिवक्ता विष्णु शर्मा ए.एस. के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि वह बच्चे की मुख्य देखभालकर्ता थीं और बच्चे ने अपने पिता को बहुत कम जाना है। वे केवल कभी-कभी मिलने आते थे।
माँ ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ही बच्चे में चिंता और भय की भावना जागरूक हो गई है। बच्चे ने “असामान्य चिंता और भय” व्यक्त किए हैं, और उसकी “विचलित और भयभीत स्थिति” का मूल्यांकन करवाया गया है। वेलोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से प्राप्त रिपोर्टें इसी तथ्य को दर्शाती हैं। मैथ्यू ने कहा कि बच्चे की मानसिक स्थिति के नए साक्ष्य इस मामले की गंभीरता को बढ़ाते हैं, और इस कारण फैसले की समीक्षा जरूरी है।
सामान्यतः, यह दुर्लभ अवसर था कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं इस मामले की सुनवाई की। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस याचिका से सहमति जताई। कोर्ट ने माना कि इस फैसले का बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर “भयावह प्रभाव” पड़ा है।
कोर्ट ने कहा कि बच्चे का कल्याण और सर्वोत्तम हित ही हिरासत विवादों में मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए। न्यायमूर्ति नाथ ने अपने फैसले में स्वीकार किया कि बच्चे का जन्म से ही उसकी माँ की देखभाल में ही रहा है। “उसे माँ की बाहों में शांति मिलती है, और उसकी उपस्थिति उसे आराम प्रदान करती है,” उन्होंने कहा। कोर्ट ने यह भी माना कि बच्चे के सौतेले पिता ने उसे प्रेम और सुरक्षा का अनुभव कराया है।
कोर्ट ने कहा कि 12 वर्ष का यह बालक अभी किशोरावस्था की ओर बढ़ रहा है। बच्चे के हितों में जो भी निर्णय लिया जाए, उसमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, पोषित पारिवारिक वातावरण, सामाजिक अनुभव, जीवन की आवश्यक सुविधाएँ, आर्थिक आवश्यकताएँ, मित्रतापूर्ण सामाजिक प्रणाली और सांस्कृतिक एवं धार्मिक शिक्षा का ध्यान रखना जरूरी है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सूचि पूरी नहीं है, लेकिन मूल बात यह है कि एक सुरक्षित, प्रेमपूर्ण और सहायक परिवार ही बच्चे के स्वस्थ विकास की नींव है।
अंत में, कोर्ट ने जैविक पिता को यात्रा का अधिकार तो दिया, लेकिन चेतावनी दी कि वह बच्चे के साथ किसी भी प्रकार का अनुचित व्यवहार न करे। न्यायमूर्ति नाथ ने कहा, “पिता- पुत्र का संबंध धैर्य और प्यार से ही मजबूत होता है, न कि कठोर शब्दों से।”
यह फैसला बच्चों के अधिकारों और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।