कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर में अकेला खड़ा अंतिम सन्तूरकारी का आशियाना
सभी को पता है कि कश्मीर अपने सुरम्य प्राकृतिक सौंदर्य और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहां की संगीत परंपरा भी उतनी ही पुरानी और समृद्ध है, जिसमें सन्तूर जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्र का खास स्थान है। लेकिन अब ये परंपरा विलुप्त होने की कगार पर है। श्रीनगर के पुराने गलियों में बनी एक छोटी सी कार्यशाला उस पुराने कला का आखिरी स्मारक है, जहाँ का एकलौता कारीगर, गुलाम मोहम्मद जाज़, अपने हाथों से सन्तूर बना रहे हैं।
सन्तूर की विरासत और उसकी ऐतिहासिक महत्ता
सन्तूर, जिसकी आकृति वक्ष की लंबाई जैसी होती है, एक स्ट्रिंग्ड म्यूजिकल इन्स्ट्रुमेंट है, जिसे अक्सर हल्के हेरफेर से बजाया जाता है। इसकी ध्वनि इतनी मोहक और क्रिस्टल जैसी बेल जैसी होती है कि इसे कश्मीर की आवाज़ कहा जाता है। इस वाद्ययंत्र का इतिहास करीब 700 से 800 वर्ष पुराना माना जाता है, और इसकी जड़ें पारसी और मध्य एशियाई संगीत परंपराओं से जुड़ी हैं। भारत में यह मुख्य रूप से कश्मीर की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है, जहाँ इसे सूफी कविताओं और लोकगीतों में प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है।
अंततः क्यों जा रहा है यह विरासत का क्षितिज?
पिछले कुछ दशकों में, पारंपरिक हस्तशिल्प की मांग लगातार घट रही है। मशीन निर्मित वाद्ययंत्र, जो सस्ते और जल्दी बन जाते हैं, ने कारीगरों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ाई है। इसके अलावा, बदलते संगीत रुझान, जैसे हिप हॉप, रैप और इलेक्ट्रॉनिक संगीत, युवा पीढ़ी के मनोभाव को बदल रहे हैं। संगीत शिक्षक शबीर अहमद मीर कहते हैं, “स्कूल और कॉलेजों में आधुनिक संगीत का बोलबाला है, जिससे पारंपरिक संगीत के प्रति रुचि कम हो रही है।” इससे न सिर्फ़ कारीगरों का कामकाज प्रभावित हुआ है, बल्कि परंपरागत हस्तशिल्प का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
गुलाम मोहम्मद जाज़ की खोती विरासत
गुलाम मोहम्मद जाज़ की उम्र करीब 70 वर्ष है, और उनका कार्यशाला लगभग सैकड़ों वर्षों पुराना है। उनके हाथों ने हजारों Santoors बनाए हैं, जिनमें से कई कलाकारों ने प्रसिद्धि पाई है। उनके कार्यशाला में पुराने जंग लगे उपकरण और लकड़ी के टुकड़े रखे हैं, जो इस कला के दीर्घकालिक इतिहास की गवाह हैं। कई सुफी और लोक कलाकार उनके हस्तनिर्मित Santoors पर प्रदर्शन कर चुके हैं। जब वे अपने काम में लगे होते हैं, तो उन्हें देखकर यह एहसास होता है कि यह कला केवल एक शौक या व्यवसाय नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है।
संतूर का विदेशी प्रभाव और उसकी वैश्विक पहचान
संतूर का जन्म पूर्वी सभ्यताओं से हुआ माना जाता है, और इसकी यात्रा सदियों पुरानी है। यह वाद्ययंत्र मध्य एशिया और पश्चिम एशिया की सांस्कृतिक विरासत का भाग है, और भारत में इसकी विशेष पहचान सूफी संगीत के माध्यम से बनी। यहाँ के सूफी कवि और संगीतकार जैसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस वाद्ययंत्र का प्रयोग करते आए हैं। हालाँकि, आज इसकी मांग घटती जा रही है, फिर भी इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता बरकरार है। कई संगीत प्रेमी और सांस्कृतिक संस्थान इसके संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। सरकार और कई गैर-सरकारी संगठनों ने इस परंपरा को बचाने के लिए कई योजनाएँ भी शुरू की हैं।
क्या हो सकता है इस परंपरा का भविष्य?
गुलाम मोहम्मद जाज़ जैसे कारीगर, जिनकी उम्र बढ़ चुकी है, के साथ ही यह कला भी खतरे में है। सरकार और समाज के सामने एक बड़ा प्रश्न है कि कैसे इस विरासत को संरक्षित किया जाए। विशेषज्ञ कहते हैं कि पारंपरिक शिल्प के प्रति युवाओं की रुचि जागरूकता अभियानों और प्रशिक्षण केंद्रों के माध्यम से बढ़ाई जा सकती है। साथ ही, डिजिटल मीडिया का प्रयोग कर इस कला को विश्व स्तर पर फैलाया जा सकता है। यदि अभी नहीं जागरूकता और संरक्षण के कदम उठाए गए, तो यह कला इतिहास के पन्नों में ही रह जाएगी।
विरासत को बचाने का महत्व और अंतिम विचार
संतूर जैसी विरासतें सिर्फ वाद्ययंत्र नहीं हैं, बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक आत्मा का हिस्सा हैं। यह कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी विशिष्टता बनाए रखती है और सद्भाव, सौंदर्य और आध्यात्मिकता का संगम होती है। इन परंपराओं का सम्मान और संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। यदि हम इन कलाओं को जीवित रखने का संकल्प लें, तो ही आने वाली पीढ़ी तक हमारी सांस्कृतिक पहचान पहुंचेगी।
यह कहानी हमें याद दिलाती है कि कैसे समय की तेज़ भागदौड़ में हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं। आइए, इस विरासत को संजोने का संकल्प लें और प्रयास करें कि हमारे पूर्वजों की धरोहर यूं ही इतिहास के पन्नों में न ग़ुम हो जाए।
इस विषय पर आपकी क्या राय है? नीचे कमेंट करें या आप भी इस कला के संरक्षण में अपना योगदान दे सकते हैं।
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