परिचय: एक नई मानसिक स्वास्थ्य चुनौती
आज के दौर में लोगों के मन में पर्यावरणीय बदलावों को लेकर अनेक तरह की चिंताएँ पल रही हैं। खासतौर पर, क्लाइमेट एंग्जायटी यानी पर्यावरणीय चिंता, एक नया मानसिक स्वास्थ्य मुद्दा बन चुकी है। इस विषय पर विश्वभर के शोधकर्ता और मनोवैज्ञानिक गहराई से अध्ययन कर रहे हैं। खासतौर पर जब यह चिंता, सामान्य तनाव से अलग होकर किसी मानसिक स्थिति का रूप ले लेती है, तो इससे जुड़ी कई जटिलताएँ सामने आती हैं।
क्लाइमेट एंग्जायटी का परिचय और उसकी मौजूदगी
अपनी रिपोर्ट में, ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक डॉ. गेओफ बीटी ने कहा है कि पर्यावरणीय संकट को लेकर चिंता करना स्वाभाविक है। लेकिन जब यह चिंता, चिंता की सामान्य सीमा को पार कर जाती है, तो इसे मानसिक स्वास्थ्य संबंधित एक गंभीर समस्या माना जा सकता है। हाल ही के शोध में पता चला है कि विश्वभर में लगभग 45% युवाओं को पर्यावरण की चिंता ने उनके दैनिक जीवन को प्रभावित किया है। खासतौर पर विकासशील देशों में यह समस्या ज्यादा देखने को मिलती है।
[यहां देखें पूरी रिपोर्ट](https://www.britishacademy.org)।
मनोवैज्ञानिक नजरिए से: क्या यह चिंता प्री-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर का रूप ले सकती है?
मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि यह चिंता लंबे समय तक बनी रहे और इसमें निरंतरता रहे, तो ये भावनाएँ मानसिक विकार की शक्ल ले सकती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की चिंता, यदि अत्यधिक और अनियंत्रित हो जाए, तो यह एक तरह का ‘pre-traumatic stress disorder’ हो सकता है। यह स्थिति, उन लोगों में पाई जाती है जो भविष्य को लेकर अत्यधिक चिंता और डर महसूस करते हैं, बिना किसी वर्तमान में स्पष्ट खतरे के।
भारत में भी इस पर अभी शोध चल रहा है। इस विषय पर, दिल्ली के एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. सुरेश कुमार कहते हैं कि, “यह चिंता यदि सही तरीके से नहीं संभाली गई, तो यह जीवन की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है।”
प्रभाव और सामाजिक संदेश
क्लाइमेट एंग्जायटी का प्रभाव, न केवल मानसिक स्वास्थ्य पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक जीवन पर भी पड़ रहा है। युवा वर्ग इस चिंता के कारण अपने अध्ययन, कामकाज और सामाजिक संबंधों में बाधाएँ महसूस कर रहा है। इन भावनाओं की वजह से वे, कभी-कभी, ‘eco-paralysis’ का शिकार हो जाते हैं, यानी हर प्रकार की कोशिश करने के बजाय निष्क्रिय हो जाना।
इस स्थिति में, ऊर्जा और प्रेरणा की कमी के चलते वे अपने आसपास की दुनिया को बदलने की दिशा में कदम उठाने से भी हिचकिचाते हैं।
विशेषज्ञ कहते हैं कि इस मानसिक स्थिति का सामना करने के लिए, समुदाय और सरकार को भी जागरूकता फैलानी चाहिए।
क्या इसे मान्यता मिलनी चाहिए?
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ (APA) ने अभी तक इसे आधिकारिक मानसिक विकार की सूची में शामिल नहीं किया है। कुछ विशेषज्ञ इसे सकारात्मक माना है, क्योंकि यह जागरूकता और बदलाव की इच्छा को जागृत कर सकता है। लेकिन दूसरी ओर, कई मानते हैं कि यदि इस चिंता को मान्यता नहीं दी जाती, तो इसे गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की लेखिका ब्रिट रवे का कहना है, “हमारी इच्छा है कि इस नैतिक भावना को विकार न माना जाए, बल्कि इसको समझने और संभालने का सही तरीका विकसित किया जाए।”
यहाँ सवाल यह है कि, क्या समाज इस समस्या को गंभीरता से स्वीकार करेगा और उन लोगों को الدعم प्रदान करेगा, जो इससे जूझ रहे हैं?
आखिरी सोच: समकालीन दुनिया में मनोवैज्ञानिक चैलेंज
समाज में बढ़ती पर्यावरणीय चिंता और उसकी मनोवैज्ञानिक जटिलताएँ, यह दर्शाती हैं कि हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी इस संकट का एक बड़ा हिस्सा बन चुका है। सरकारें, शिक्षण संस्थान और समुदाय को मिलकर ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए, ताकि इन भावनात्मक चुनौतियों का सामना किया जा सके।
साथ ही, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े जागरूक अभियान और जागरूकता कार्यक्रम भी जरूरी हैं।
इस विषय पर आपकी क्या राय है? नीचे कमेंट कर हमें बताएं।
यह स्थिति समय की मांग है कि हम अपने मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें। पर्यावरण संकट के साथ-साथ, हमें अपनी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को भी समझना चाहिए, ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें।
निष्कर्ष
क्लाइमेट एंग्जायटी को लेकर बढ़ते जागरूकता के बीच, यह जरूरी है कि हम इसे एक सामान्य चिंता से अलग, एक मानवीय और मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा मानें। इससे निपटने के लिए शिक्षाविद्, मनोवैज्ञानिक और सरकारों को मिलकर कदम उठाने होंगे। तभी हम अपने भविष्य को सुरक्षित और स्वस्थ बना सकते हैं।
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