भीम राव वर्मा का नाम मुख्यधारा के अख़बारों और न्यूज़ चैनलों में अक्सर नहीं आता, लेकिन ग्रामीण भारत के नवाचार की जब भी बात होती है, तो उनके योगदान को अनदेखा करना कठिन है। बिहार के मधेपुरा जिले से आने वाले भीम राव वर्मा एक किसान परिवार में जन्मे, लेकिन सोच हमेशा उस दायरे से बड़ी रही जो आमतौर पर ग्रामीण भारत में तय कर दिया जाता है। उन्होंने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई स्थानीय स्तर पर पूरी की, लेकिन असली सीख उन्होंने खेत, खलिहान और गांव के संसाधनों को समझने के अनुभव से ली।
भीम राव वर्मा का नवाचार मुख्यतः स्थानीय जरूरतों और कम संसाधनों में समाधान निकालने की क्षमता से जुड़ा रहा है। वे ऐसे समय में प्रयोग कर रहे थे जब इनोवेशन को केवल बड़े शहरों या IITs से जोड़ा जाता था। उन्होंने तकनीक को कभी कॉम्प्लेक्स नहीं बनाया, बल्कि गांवों की भाषा और ज़रूरत के हिसाब से सरल उपकरण तैयार किए, जो किसानों, महिलाओं और छोटे कारीगरों की जिंदगी आसान बना सके।
उनका सबसे चर्चित इनोवेशन रहा “मिट्टी से जल शुद्धिकरण” तकनीक, जिसे उन्होंने कई वर्षों के प्रयोग के बाद तैयार किया। यह तकनीक इतनी सरल थी कि किसी भी गांव में बिना बिजली और फिल्टर के भी पीने का साफ पानी तैयार किया जा सकता था। इसकी लागत बेहद कम थी और यह पूरी तरह स्थानीय सामग्री पर आधारित था। उन्होंने इसके लिए कोई पेटेंट नहीं लिया, न ही किसी सरकारी ग्रांट पर निर्भर रहे — उनका मानना था कि अगर कोई आइडिया लोगों की जिंदगी बेहतर कर सकता है, तो उसे खुले में रहना चाहिए, न कि फाइलों में बंद।
भीम राव वर्मा का जुड़ाव National Innovation Foundation (NIF) और Honey Bee Network जैसे संगठनों से रहा, जहां उन्हें अपने इनोवेशन को प्रोत्साहन मिला। उन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र और ओडिशा के कई गांवों में जाकर अपने मॉडल को डेमोंस्ट्रेट किया, और स्थानीय स्तर पर लोगों को सिखाया कि कैसे वे खुद इन तकनीकों को अपना सकते हैं। यह काम किसी संस्थान की मदद से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पहल से हुआ।
उनके काम की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि वे “कम लागत में उच्च प्रभाव” के सिद्धांत पर काम करते रहे। उदाहरण के लिए, उन्होंने एक ऐसा हल्का, सस्ता और पोर्टेबल “कृषि स्प्रेयर” डिजाइन किया जिसे कोई भी किसान साइकिल या बैग में लेकर खेत में इस्तेमाल कर सकता था। इस स्प्रेयर को लेकर उन्होंने न किसानों से कोई शुल्क लिया, न प्रचार किया, लेकिन धीरे-धीरे यह डिज़ाइन बिहार और झारखंड के कई जिलों में अपनाया जाने लगा।
भीम राव वर्मा के नवाचार का दृष्टिकोण कभी भी “Start-up” या “Venture Capital” जैसे शहरी शब्दों से प्रभावित नहीं रहा। उन्होंने नवाचार को केवल समाधान के रूप में देखा, न कि व्यवसाय या ब्रांड बनाने के रूप में। यही कारण है कि वे लाखों की बोलियों के बावजूद अपने डिज़ाइनों को बेचने के बजाय, सार्वजनिक डोमेन में डालते रहे।
उनकी एक बड़ी उपलब्धि यह भी रही कि उन्होंने गांवों के युवाओं को “कचरा” समझे जाने वाले संसाधनों से नवाचार करना सिखाया। उदाहरण के लिए, पुराने साइकिल पार्ट्स से पानी खींचने की मशीन, या टूटी हुई छतरियों से सोलर कुकर बनाना – ये सब चीजें उन्होंने ग्रामीण स्कूलों और विज्ञान मेलों में डेमोंस्ट्रेट कीं। इससे न केवल विज्ञान में रुचि बढ़ी, बल्कि ग्रामीण बच्चों को यह अहसास हुआ कि नवाचार उनकी पहुंच से बाहर नहीं है।
सरकारी स्तर पर भी उन्हें कुछ पुरस्कार मिले – जैसे IGNITE Award by NIF, और राज्य स्तरीय ग्रामीण अविष्कार सम्मान, लेकिन ये पहचान कभी उनके काम के मूल उद्देश्य को नहीं बदल सकीं। वे आज भी मधेपुरा में रहते हैं, और समय-समय पर अपने प्रयोगों को साझा करते हैं। वे इंटरनेट और सोशल मीडिया से दूर रहते हैं, लेकिन कुछ स्थानीय पत्रकारों और ग्रासरूट कार्यकर्ताओं के जरिए उनके प्रयोग देश के अन्य हिस्सों तक पहुंचते हैं।
वो कहते हैं — “नवाचार दिखाने की चीज़ नहीं है, समझने और अपनाने की चीज़ है।” यही विचारधारा उन्हें बाकी ‘इनोवेटर्स’ से अलग करती है। जहां शहरी स्टार्टअप्स अपने आइडिया को पेटेंट, प्रमोशन और प्रॉफिट से जोड़ते हैं, वहीं भीम राव वर्मा इसे ‘जन-ज्ञान’ का हिस्सा मानते हैं।
उनका व्यक्तित्व सादगी से भरा है। वे आज भी खुद ही अपने उपकरण तैयार करते हैं, उसका डेमो देते हैं और स्थानीय कारीगरों को ट्रेनिंग भी। उन्हें जब भी किसी कार्यक्रम में बुलाया जाता है, वे बाइज़्ज़त सादा कपड़े पहनकर आते हैं और विषय की बात करते हैं, न कि मंच की चमक पर टिके रहते हैं। उनका हर प्रयोग एक उद्देश्य से जुड़ा होता है — “गांव के लोग, गांव के संसाधन, गांव के समाधान।”
भीम राव वर्मा जैसे लोगों की सबसे बड़ी ताकत यही होती है कि वे किसी सिस्टम से मान्यता पाने के मोहताज नहीं होते। वे अपना सिस्टम खुद खड़ा करते हैं — जहां एक-एक चीज़ उपयोग में लाई जाती है, और हर समाधान ज़मीन से जुड़ा होता है। वे ग्रामीण नवाचार के उस चेहरे को सामने लाते हैं जो ना तो फंडिंग से चलता है, ना ही स्पॉटलाइट से — बल्कि जरूरत, समझ और लगन से जन्म लेता है।