Skip to content
The Wolf chronicle
The Wolf chronicle

Not Just News — A Howl of Reality

  • Travel
  • Automobile
  • Startup
  • Contact Us
The Wolf chronicle

Not Just News — A Howl of Reality

जिस महिला ने कैमरे के पीछे से गांवों की तस्वीर बदल दी – ये हैं शांता सान्याल

The Wolf, June 13, 2025June 13, 2025

शांता सान्याल का नाम आज के दौर में जनसंचार, शिक्षा और महिला नेतृत्व की बात करते समय कम ही लिया जाता है, लेकिन उनका काम उस समय शुरू हुआ जब ये शब्द महज परिभाषाओं तक सीमित थे। पश्चिम बंगाल में जन्मीं शांता सान्याल ने शिक्षा और पत्रकारिता को पेशा नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी की तरह लिया। उनका झुकाव शुरुआत से ही ग्रामीण भारत की तरफ था, जहां संवाद का तंत्र ना के बराबर था और जहां शिक्षा अभी भी विशेषाधिकार की तरह देखी जाती थी। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक शैक्षणिक संस्थान से की लेकिन जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि अगर वे बदलाव देखना चाहती हैं, तो कक्षा की चारदीवारी से बाहर निकलना होगा।

शांता ने All India Radio और बाद में Doordarshan में एक लंबे समय तक काम किया, लेकिन उनका फोकस हमेशा ग्रामीण महिलाओं, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता से जुड़ी कहानियों पर रहा। उन्होंने जनसंचार को ‘एंटरटेनमेंट’ से हटाकर ‘एजुकेशन’ की ओर मोड़ने की कोशिश की। जब रेडियो को गांवों में मनोरंजन का ज़रिया माना जाता था, तब शांता ने उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला अधिकार जैसे विषयों को जोड़कर इसे समाज के लिए एक औजार बनाया। यह प्रयोग आसान नहीं था, क्योंकि नीतिगत ढांचे में महिलाओं की बात को प्राथमिकता नहीं दी जाती थी, लेकिन शांता सान्याल ने धैर्य नहीं छोड़ा।

उन्होंने न केवल कंटेंट तैयार किया बल्कि इसे ग्राम पंचायतों और महिला स्वयंसेवी समूहों के ज़रिए फैलाया भी। 1980 और 90 के दशक में जब टेलीविजन पर मुख्य रूप से शहरी कथानक हावी थे, शांता सान्याल ने ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर आधारित लघु फिल्मों और डॉक्युमेंट्रीज़ का निर्माण किया, जो अक्सर सीमित संसाधनों में बनती थीं लेकिन असर गहरा छोड़ती थीं। इनमें स्वास्थ्य, महिला साक्षरता, घरेलू हिंसा, शिशु पोषण और बालिका शिक्षा जैसे मुद्दों को बिना नारेबाज़ी के, एक ग्रामीण महिला की ज़ुबान में प्रस्तुत किया गया।

उनका काम मुख्यधारा के पुरस्कारों से भले ही दूर रहा हो, लेकिन उन्होंने सामाजिक संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं के बीच एक सेतु का काम किया। उन्होंने कई वर्षों तक यूनेस्को, यूनिसेफ और लोकल एजुकेशन बोर्ड्स के साथ मिलकर “कम्युनिटी रेडियो” की दिशा में काम किया। ये ऐसा समय था जब कम्युनिटी रेडियो का न तो कानूनी ढांचा स्पष्ट था, न ही इसे कोई बड़ा समर्थन प्राप्त था। शांता ने इसके लिए ग्राउंडवर्क किया – महिला समुदायों को रेडियो प्रोग्राम बनाना सिखाया, लोकल भाषा में स्क्रिप्ट तैयार करवाई और विषयों को चुना जो वाकई ज़मीनी होते थे।

उन्होंने कई जिलों में “शिक्षा संवाद केंद्र” की शुरुआत करवाई जहां गांव की महिलाएं हफ्ते में एक दिन इकट्ठा होकर रेडियो कार्यक्रम सुनती थीं और उस पर चर्चा करती थीं। यह शिक्षा का एक ऐसा मॉडल था जिसमें कोई पाठ्यक्रम नहीं था, कोई शिक्षक नहीं, लेकिन संवाद था – और यही संवाद परिवर्तन की शुरुआत बनी। उनके इन प्रयासों को कई लोकल NGOs ने अपनाया, और धीरे-धीरे यह कई राज्यों में फैल गया।

शांता सान्याल की एक और विशेषता यह रही कि उन्होंने कभी भी कैमरे के सामने रहना नहीं चाहा। वे हमेशा सामग्री और परिणाम पर फोकस करती थीं। जब उन्हें विश्वविद्यालयों और संगठनों में फैकल्टी के रूप में बुलाया गया, तब भी उन्होंने क्लासरूम में प्रेजेंटेशन देने की बजाय, छात्रों को फील्ड विज़िट पर ले जाना ज़्यादा पसंद किया। वे मानती थीं कि जब तक छात्र गांव के स्कूल में शिक्षक की अनुपस्थिति, या आंगनवाड़ी में पोषण की स्थिति नहीं देखेंगे, तब तक जनसंचार सिर्फ थ्योरी रह जाएगा।

उनकी डॉक्युमेंट्रीज़ की खास बात यह थी कि वे कभी “माइक्रोफोन पकड़कर पीड़िता से सवाल” करने वाली शैली में नहीं बनाई जाती थीं। वे गांव की स्त्रियों को खुद बोलने देती थीं, बिना एडिट किए, बिना किसी प्रभावशाली बैकग्राउंड म्यूजिक के। यही कारण था कि वे डॉक्युमेंट्री अक्सर शहरी दर्शकों को “धीमी” लगती थीं लेकिन ग्रामीण महिलाएं उनसे जुड़ाव महसूस करती थीं। उनका विश्वास था कि ‘Representation’ केवल किसी समस्या को दिखाने का नाम नहीं, बल्कि उसे उसके संदर्भ में बोलने देने का नाम है।

शांता ने 2000 के दशक में कई राज्य सरकारों के लिए “जनसंचार आधारित शिक्षा” पर परामर्श भी दिया। लेकिन उन्होंने खुद को कभी पॉलिसी फ्रेमवर्क तक सीमित नहीं किया। वे जमीन पर फील्ड वर्क करती रहीं, और नई पीढ़ी को प्रशिक्षित भी। दिल्ली, भोपाल और कोलकाता के पत्रकारिता संस्थानों में उन्होंने कई वर्षों तक गेस्ट फैकल्टी के रूप में काम किया, जहां वे एक ही बात बार-बार दोहराती थीं – “अगर आपको सच्ची स्टोरी चाहिए, तो आपको शहर छोड़ना पड़ेगा।”

आज जब मीडिया में ‘वायरल’, ‘ट्रेंडिंग’ और ‘हिट्स’ जैसे शब्दों की बाढ़ है, शांता सान्याल का काम एक स्मृति की तरह खड़ा है — गुमनाम लेकिन ठोस। उन्होंने कभी पुरस्कारों की मांग नहीं की, कभी पब्लिक अपीयरेंस की कोशिश नहीं की, लेकिन उनके प्रशिक्षित छात्र, कम्युनिटी रेडियो से जुड़े वॉलंटियर्स और डॉक्युमेंट्रीज आज भी उनके असर का प्रमाण हैं।

शांता सान्याल आज रिटायर्ड जीवन जी रही हैं लेकिन वे लगातार ग्रामीण क्षेत्रों के संवाद से जुड़ी गतिविधियों में सलाह देती हैं। उन्होंने तकनीक को अस्वीकार नहीं किया, लेकिन उसे माध्यम के रूप में अपनाया – प्राथमिकता हमेशा कंटेंट को दी। WhatsApp और YouTube जैसे प्लेटफॉर्म पर वे खुद सक्रिय नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा प्रशिक्षित ग्रामीण महिलाओं ने अब मोबाइल कैमरा को अपनाया है और लोकल मुद्दों पर वीडियो बनाकर शेयर करती हैं।

शांता सान्याल ने कोई आंदोलन नहीं चलाया, कोई मंच नहीं बनाया, लेकिन उनके काम ने धीरे-धीरे एक ऐसी क्रांति की नींव रखी, जो शांति से आई और आज भी बिना शोर के जारी है।

Uncategorized

Post navigation

Previous post
Next post

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

  • Tata Motors ने सबको चौंका दिया – ऐसा कदम किसी ने सोचा भी नहीं था!
  • 2025 की टॉप 5 सस्ती कारें जिनमें मिलती है लक्ज़री SUV वाली Feel!
  • EV लेने से पहले ये 7 छिपे हुए खर्च निश्चित रूप से जानें!
  • Tata, Mahindra या MG – कौन है इंडिया की EV की असली बादशाह?
  • 2025 तक भारत की सड़कें कैसी दिखेंगी? EVs का बड़ा विस्फोट!

Recent Comments

No comments to show.

Archives

  • June 2025

Categories

  • Automobile
  • Food Culture
  • Startup
  • Uncategorized

About Us

  • Contact Us
  • Automobile
©2025 The Wolf chronicle | WordPress Theme by SuperbThemes