
आर. बालकृष्णन जिन्हें इंडस्ट्री में आमतौर पर आर. बाल्की के नाम से जाना जाता है, भारतीय विज्ञापन और सिनेमा की दुनिया में एक दुर्लभ संयोग हैं — ऐसे व्यक्ति जिन्होंने दोनों क्षेत्रों में न केवल प्रवेश किया, बल्कि एक स्पष्ट छाप भी छोड़ी। बाल्की की शुरुआत विज्ञापन से हुई, और उन्होंने भारत की सबसे बड़ी एजेंसियों में से एक, Lowe Lintas में क्रिएटिव डायरेक्टर और बाद में चेयरमैन का पद संभाला। लेकिन जहां अधिकतर लोग विज्ञापन से फिल्म में केवल स्टोरीबोर्ड या स्क्रिप्ट ले जाते हैं, बाल्की ने पूरे फॉर्मेट को नई दिशा दी।
उनकी शुरुआती पृष्ठभूमि तमिलनाडु की है। बाल्की इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छोड़कर मुंबई चले आए थे। उन्होंने MICA (Mudra Institute of Communications, Ahmedabad) में प्रवेश लिया था, लेकिन वहां भी कोर्स पूरा नहीं किया। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने MICA छोड़ने का कारण यह बताया था कि उन्हें “एडवरटाइजिंग से ज़्यादा क्रिकेट पसंद था।” फिर भी, Lowe Lintas में उनकी शुरुआत और तेज़ी से हुई चढ़ाई ने उन्हें भारतीय विज्ञापन उद्योग का एक जाना-माना नाम बना दिया।
बाल्की की सोच पारंपरिक विज्ञापन ढांचे से अलग थी। वे केवल उत्पाद बेचने में नहीं, बल्कि ब्रांड के पीछे कहानी गढ़ने में यकीन रखते थे। उनके कुछ यादगार कैंपेन में “Daag Acche Hain” (Surf Excel) और “What an Idea Sirji” (Idea Cellular) शामिल हैं। इन कैंपेन ने केवल प्रोडक्ट ही नहीं बेचा, बल्कि सामाजिक संदेश के साथ ब्रांड को जोड़ा। यही उनकी सबसे बड़ी यूएसपी बनी — व्यवसायिक और सामाजिक सोच को एक सूत्र में पिरोना।
फिल्मों में उनका आगमन अचानक नहीं था, लेकिन उनकी पहली फिल्म ‘चीनी कम’ (2007) ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे केवल प्रयोग करने नहीं, बल्कि स्थापित सोच को चुनौती देने आए हैं। अमिताभ बच्चन और तब्बू जैसे कलाकारों के साथ, एक उम्रदराज व्यक्ति और युवा महिला के बीच प्रेम संबंध पर बनी यह फिल्म बेहद संवेदनशील और संतुलित दृष्टिकोण से पेश की गई थी। इसे आलोचकों ने भी सराहा, और साथ ही दर्शकों ने भी अपनाया।
इसके बाद आई फिल्म ‘पा’ (2009) एक बड़ा जोखिम थी। फिल्म में अमिताभ बच्चन को उनके बेटे अभिषेक बच्चन का बेटा दिखाया गया, और अमिताभ ने ‘प्रोजेरिया’ नामक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित बच्चे का किरदार निभाया। यह उस दौर की फिल्मों से बिल्कुल अलग थी, जहां बीमारी या विकलांगता को या तो करुणा का विषय बनाया जाता था या पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता था। बाल्की ने इसे मानवीय गरिमा के साथ दिखाया और अमिताभ के अभिनय ने फिल्म को यादगार बना दिया।
इसके बाद बाल्की ने फिल्मों को सिर्फ कहानी नहीं, एक विचार से जोड़ा। ‘शमिताभ’ (2015) में उन्होंने आवाज़ और चेहरा — दो अलग-अलग पात्रों को जोड़कर अभिनेता और उसकी पहचान पर सवाल उठाया। हालांकि फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली, लेकिन विषय का चुनाव असामान्य था।
फिल्म ‘की एंड का’ (2016) में उन्होंने जेंडर रोल्स पर सीधा वार किया। फिल्म में पुरुष घर संभालता है और महिला करियर बनाती है — एक ऐसा विषय जो उस दौर में अभी भी अपवाद था। बाल्की के लिए यह सिर्फ नरेटिव नहीं था, बल्कि यह दिखाने की कोशिश थी कि कैसे समाज बिना सोचे एक ढांचे को स्वीकार कर लेता है।
बाल्की की शायद सबसे चर्चित फिल्म रही ‘पैडमैन’ (2018), जो अरुणाचलम मुरुगनाथम के जीवन से प्रेरित थी — एक ऐसे व्यक्ति जिन्होंने ग्रामीण भारत में सस्ती सैनिटरी नैपकिन बनाने का मिशन शुरू किया था। फिल्म को बॉलीवुड में ‘सामाजिक उद्यमिता’ पर बनी फिल्मों की एक अलग जगह में रखा गया। अक्षय कुमार की भूमिका और विषय की संवेदनशीलता को संतुलन के साथ पेश करना आसान नहीं था, लेकिन बाल्की ने इसे बिना भावनात्मक अतिरंजना के पेश किया।
एक और बात जो बाल्की की फिल्मोग्राफी में स्पष्ट दिखती है, वह है बॉलीवुड फॉर्मूला से दूरी। उन्होंने कभी भी एक्शन, मसाला, या मेलोड्रामा पर भरोसा नहीं किया। उनकी फिल्में सीमित बजट, सीमित किरदारों और फोकस्ड कहानी पर आधारित होती हैं। इससे वे बॉक्स ऑफिस के पारंपरिक रिकॉर्ड्स नहीं तोड़ते, लेकिन सिनेमाई गंभीरता और वैचारिक स्पष्टता के लिए सराहे जाते हैं।
उनका निर्देशन का तरीका भी अलग है। वे अभिनेता को कंट्रोल नहीं करते, बल्कि कंटेक्स्ट में डालते हैं। अमिताभ बच्चन के साथ उनका रिश्ता खास रहा है — लगभग हर फिल्म में उनका कोई किरदार रहा है। यह न केवल प्रोफेशनल बल्कि वैचारिक मिलन भी दर्शाता है, क्योंकि बच्चन खुद भी सामाजिक विचारों वाले सिनेमा को लेकर हमेशा उत्साहित रहे हैं।
बाल्की केवल निर्देशक ही नहीं, लेखक भी हैं। उनकी फिल्मों की स्क्रिप्ट उनके खुद के विचारों से उपजी होती हैं। वे टीम को क्रिएटिव स्पेस देने के पक्षधर हैं और सेट पर अनावश्यक औपचारिकता के खिलाफ हैं।
विज्ञापन और फिल्मों के अलावा बाल्की ने टीवी और डिजिटल कंटेंट में भी कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम किया है, लेकिन उनका फोकस अब भी स्क्रिप्ट आधारित, विचारशील सिनेमा पर है। वे खुद इंटरव्यूज में कहते हैं कि “जो कहना है, वही दिखाना है। दर्शक को बेवकूफ मत समझो।”
आज जब भारतीय सिनेमा दो हिस्सों में बँट चुका है — एक तरफ स्टारडम, दूसरी तरफ ऑर्ट हाउस — बाल्की की जगह बीच में है। वे न तो पूरी तरह कमर्शियल हैं, न ही केवल अवॉर्ड की ओर देखते हैं। उनकी फिल्में हॉल में उतनी भीड़ नहीं खींचतीं, लेकिन OTT या TV पर बार-बार देखी जाती हैं — क्योंकि वे विचार छोड़ती हैं, शोर नहीं करतीं।
बाल्की का करियर इस बात का उदाहरण है कि क्रिएटिविटी एक फील्ड तक सीमित नहीं होती। उन्होंने विज्ञापन में ब्रांड गढ़े, और फिल्मों में वैचारिक बहसें शुरू कीं। उनका नाम शायद आम फिल्म दर्शकों के लिए उतना परिचित न हो, लेकिन जो लोग भारतीय कंटेंट के मूल्य और प्रभाव को समझते हैं, उनके लिए बाल्की एक स्थायी उपस्थिति हैं — बिना किसी प्रचार के, विचार के बल पर।