अमूल की सफलता के पीछे एक गुमनाम रणनीतिकार, जिसे आज कोई नहीं जानता

टी.एन. मणि का नाम अमूल जैसे सहकारी मॉडल से जुड़ा है, लेकिन आम जनता के लिए यह नाम अपरिचित ही रहा है। जब भी अमूल की बात होती है, तो लोग कुरियन को याद करते हैं — और सही भी है, क्योंकि वर्गीज़ कुरियन अमूल के चेहरा और चैंपियन थे। लेकिन सहकारी आंदोलन की संस्थागत सफलता, ऑपरेशनल विस्तार और संगठन के भीतर अनुशासन स्थापित करने में टी.एन. मणि जैसे प्रशासनिक लोगों की भूमिका को भुलाया गया है।

टी.एन. मणि की पृष्ठभूमि तकनीकी और प्रबंधन से जुड़ी रही। उन्होंने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) के साथ 1970 के दशक में काम शुरू किया और 1980 के दशक में अमूल (GCMMF – गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन) की प्रशासनिक संरचना में अहम भूमिका निभाई। उस समय अमूल का सहकारी मॉडल राजनीतिक हस्तक्षेप, ढीली सप्लाई चेन, और ग्रामीण-शहरी कनेक्शन की समस्याओं से जूझ रहा था।

मणि ने GCMMF में मुख्य रूप से वित्त, सप्लाई चेन मैनेजमेंट, और सहकारी समितियों की आंतरिक जवाबदेही पर फोकस किया। उनके प्रशासनिक निर्णयों का मकसद यह था कि संस्था केवल नेताओं पर आधारित न रहे, बल्कि सिस्टम पर टिके। उन्होंने प्रोसेस ड्रिवन मॉडल को लागू किया — जिसमें दुग्ध उत्पादकों से लेकर प्रोसेसिंग प्लांट तक के हर चरण को ट्रैक करना संभव हो।

टी.एन. मणि को खासतौर पर 1990 के दशक में GCMMF के भीतर अनुशासन लागू करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। उस दौर में कई सहकारी समितियां आंतरिक राजनीति से प्रभावित हो रही थीं, जिससे सप्लाई में रुकावट, भुगतान में देरी और उत्पादकता में गिरावट देखने को मिल रही थी। मणि ने इन इकाइयों को आंतरिक ऑडिट, डाटा ट्रैकिंग, और समयबद्ध भुगतान के जरिए नियंत्रित किया।

उनकी एक प्रमुख उपलब्धि GCMMF के ERP (Enterprise Resource Planning) सिस्टम को लागू करना था — एक ऐसा कदम जिसे तब नवाचार के तौर पर नहीं देखा गया, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि अमूल की इनवेंटरी, डिस्ट्रिब्यूशन और बिलिंग प्रणाली एक स्थायी ढांचे में आ गई। इससे फेडरेशन की पारदर्शिता और गति दोनों में सुधार हुआ।

टी.एन. मणि के कार्यकाल के दौरान अमूल ने भारत के बाहर अपने उत्पादों को भेजना शुरू किया। उन्होंने भारत सरकार और DGFT (Directorate General of Foreign Trade) के साथ समन्वय कर अमूल ब्रांड को विदेशी मार्केट में भी पंजीकृत और स्थापित करवाया। यह प्रक्रिया आसान नहीं थी, क्योंकि एक सहकारी संस्था के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उतरना निजी कंपनियों जितना सीधा नहीं होता।

उनका नज़रिया ब्रांड से अधिक सिस्टम पर था। यही कारण है कि वह कभी पब्लिक फेस नहीं बने। वे प्रेस इंटरव्यू या बिज़नेस अवॉर्ड्स के मंच पर नहीं दिखे, लेकिन उनकी भूमिका संगठन के रोज़मर्रा के निर्णयों और दीर्घकालिक दिशा तय करने में रही। वर्गीज़ कुरियन की रणनीति और विज़न को क्रियान्वयन स्तर पर लाने वालों में मणि की गिनती होती थी।

उन्हें अकसर ‘कठोर प्रशासक’ माना गया क्योंकि वे सहकारी समितियों की कार्यशैली में लापरवाही और राजनीति को बर्दाश्त नहीं करते थे। उन्होंने कई बार समितियों को फंड रिलीज़ करने से रोका जब तक उनकी ऑडिट रिपोर्ट्स और भुगतान स्थिति स्पष्ट न हो जाए। इससे कई बार टकराव भी हुआ, लेकिन यह नीति GCMMF की वित्तीय अनुशासन की रीढ़ बनी।

उनके काल में अमूल ने अपने उपभोक्ता उत्पाद पोर्टफोलियो को भी बढ़ाया — बटर, चीज़, दूध, दही के अलावा आइसक्रीम, बेकरी उत्पाद और UHT दूध जैसी नई श्रेणियाँ जोड़ी गईं। ये निर्णय मार्केट रिसर्च और वितरक फीडबैक के आधार पर लिए गए। अमूल की वितरण प्रणाली 10 लाख से अधिक रिटेल आउटलेट तक पहुँच चुकी थी, जिसमें मणि के डिजिटलीकृत सप्लाई चैनल की बड़ी भूमिका थी।

अक्सर लोग सोचते हैं कि सहकारी आंदोलन केवल ‘परोपकार’ या ‘ग्रामीण विकास’ से जुड़ा होता है। मणि की सोच अलग थी — वे इसे एक दक्ष, कॉम्पिटिटिव और स्केलेबल बिज़नेस मॉडल मानते थे, जिसमें स्थानीय उत्पादकों को इक्विटी और लाभ में हिस्सेदारी दी जाती है। उन्होंने इस मॉडल को मुनाफा और सामाजिक उत्तरदायित्व दोनों के सटीक संतुलन के रूप में चलाया।

उन्होंने GCMMF में नेताओं का केंद्रीकरण नहीं होने दिया। संस्था की गवर्नेंस प्रणाली को ऐसा बनाया कि निर्णय समिति आधारित हों, न कि किसी एक व्यक्ति पर निर्भर। कई बार यह रणनीति धीमी दिखती है, लेकिन इसने संगठन की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित की।

टी.एन. मणि 2000 के दशक की शुरुआत में GCMMF से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद वे किसी भी पब्लिक कॉर्पोरेट भूमिका में नहीं दिखे। वे ना ही राजनीतिक रूप से जुड़े, और ना ही किसी निजी डेयरी ब्रांड से। उनकी प्रोफाइल परंपरागत नौकरशाही और व्यवसाय प्रबंधन के संगम जैसी थी — जो नीतिगत दृढ़ता, डेटा पर आधारित निर्णय और निष्पक्षता पर केंद्रित रही।

आज जब अमूल को एक राष्ट्रीय ब्रांड और सहकारी सफलता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, तो वर्गीज़ कुरियन की विरासत को समझने के साथ-साथ यह जानना ज़रूरी है कि इस सफलता को टिकाऊ और स्केलेबल बनाने में मणि जैसे लोगों की भूमिका मौन लेकिन निर्णायक रही।

उनके जैसा व्यक्ति कोई स्पीकर नहीं था, कोई सोशल मीडिया प्रेज़ेंस नहीं रखता था, और किसी मैगज़ीन के फ्रंट पेज पर नहीं आया। फिर भी उन्होंने अमूल को एक बिज़नेस सिस्टम के रूप में स्थिर किया, जहाँ उत्पादक, उपभोक्ता और संगठन — तीनों को लाभ और भरोसा मिला।

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